pub-5493207025463217 भारत ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए उपयुक्त है? हमारे पार्टी सिस्टम पर इसके असर के बारे में सोचना जरूरी - SBEDINEWS

Breaking

Subscribe Us

test banner

Post Top Ad

Responsive Ads Here

Post Top Ad

Responsive Ads Here

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

भारत ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए उपयुक्त है? हमारे पार्टी सिस्टम पर इसके असर के बारे में सोचना जरूरी

हाल ही में पीठासीन अधिकारियों की एक बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर एक देश, एक चुनाव यानी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की। वे यह इच्छा पहले भी जता चुके हैं, पर इस बार उन्होंने अधिक आक्रामकता से इसकी वकालत की है। उन्होंने कहा, ‘यह बहस का मुद्दा नहीं है, भारत की जरूरत है।’ कुछ वर्ष पहले इस पर पत्रकारों, विश्लेषकों और साझेदारों में काफी बहस हुई थी, जहां सभी ने व्यावहारिकता, वैधता और भारत के पार्टी सिस्टम पर असर के मुद्दे के आधार पर प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष में तर्क पेश किए थे।

पक्ष में दिए गए तर्कों में खर्च का कम होना और सरकार द्वारा विकास कार्यों में तेजी लाना शामिल था। इस दो तर्कों पर शायद ही कोई असहमति हो, लेकिन क्या एकसाथ चुनाव के लिए ये दो फायदे ही काफी हैं? या भारत में पार्टी सिस्टम पर इसके असर के बारे में भी सावधानीपूर्वक सोचना जरूरी है?

इसके व्यावहारिक होने पर सवाल है कि भारत जैसे संघीय देश में इसे कैसे लागू कर सकते हैं, जहां राज्यों की अपनी चुनी हुई सरकारें होती हैं, जिनकी संवैधानिक शक्तियां होती हैं। एक समस्या यह भी है कि तब क्या होगा, जब किसी राज्य में सरकार कार्यकाल पूरा होने से पहले ही गिर जाएगी। तब क्या राज्यपाल शासन लागू होगा और चुनाव अगली बारी आने पर होंगे?

अभी हर राज्य का अपना चुनाव चक्र है, ऐसे में उस राज्य सरकार का क्या होगा, जिसे कुछ ही वर्ष पहले चुनाव के माध्यम से चुना गया है? क्या संविधान संशोधन के बाद किसी राज्य को राज्यपाल शासन में लंबे समय तक रखने का प्रावधान बनाना लोकतांत्रिक सिद्धांत के खिलाफ नहीं होगा?

लेकिन इन मुद्दों से परे, पार्टी सिस्टम (बहुदल पद्धति) की प्रकृति पर इसका असर बड़ा मुद्दा है। इसकी संभावना है कि कुछ पार्टियां, मुख्यत: राष्ट्रीय पार्टियां, राज्य व राष्ट्रीय राजनीति, दोनों में दबदबा बना लें। कुछ मजबूत क्षेत्रीय पार्टियां भले ही राज्य में बची रहें, लेकिन कई छोटी पार्टियां धीरे-धीरे भारत के राजनीतिक मानचित्र से गायब हो जाएंगी। प्रमाण बताते हैं कि जब कभी लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ होते हैं, बड़ी संख्या में मतदाता समान पार्टी को वोट देते हैं। यहां तक कि जब लोकसभा चुनाव होने के 6 महीने बाद विधानसभा चुनाव होते हैं, तब भी मतदाता समान पार्टी को वोट देते हैं, हालांकि इसमें कुछ अपवाद भी हैं। राष्ट्रीय पार्टियां लाभ की स्थिति में रहती हैं। दबदबे वाली क्षेत्रीय पार्टी को भी लाभ मिलता है, लेकिन छोटी क्षेत्रीय पार्टियों को नुकसान होता है।

एकसाथ चुनाव होने पर छोटी क्षेत्रीय पार्टियां इसलिए गायब हो जाएंगी, क्योंकि मतदाताओं की पसंद इससे प्रभावित होगी कि पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में कैसी भूमिका निभा रही हैं। एकसाथ चुनाव का मतलब होगा राष्ट्रीय दलों के प्रभुत्व का विस्तार और क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीतिक जगह धीरे-धीरे कम होना।

प्रमाण बताते हैं कि अब तक 111 बार ऐसा हुआ है, जब विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ हुए, जिनमें 387 राष्ट्रीय पार्टियां चुनाव लड़ीं। इनमें से 263 पार्टियों (69%) के लिए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के वोट शेयर में 3% से कम का अंतर रहा, वहीं 19% पार्टियों के लिए दोनों चुनावों में वोट शेयर का अंतर 3 से 6 फीसदी रहा। प्रमाण यह भी बताते हैं कि भले ही विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव के 6 महीने बाद हुए हों, मतदाताओं ने जबर्दस्त ढंग से दोनों चुनावों में समान पार्टी को वोट दिए। ऐसी 501 राष्ट्रीय पार्टियों के आंकड़े इकट्‌ठा किए गए, जो 6 महीने के अंतर से दोनों चुनावों के मामले में फिट बैठती हैं, उनमें 68% मामलों में राष्ट्रीय पार्टियों का वोट प्रतिशत ज्यादा रहा या थोड़ा ही कम हुआ। लोगों द्वारा प्रभावी क्षेत्रीय पार्टी को चुनने के मामले में भी स्थिति ज्यादा नहीं बदली।

जब एकसाथ चुनाव हुए तो 79% क्षेत्रीय पार्टियों का वोट शेयर ज्यादा हुआ या थोड़ा ही कम हुआ, जहां वोट शेयर में 3% का अंतर रहा। ऐसे ही जब विधानसभा चुनाव 6 महीने के अंतर से हुए, तो दोनों चुनाव लड़ने वाली 75% क्षेत्रीय पार्टियों के वोट शेयर में 3% से कम अंतर था।

क्षेत्रीय पार्टियों के विरुद्ध तर्क दिए जाते हैं, कुछ तो यहां तक कहते हैं कि भारत में राजनीतिक पार्टियों की संख्या सीमित कर देनी चाहिए। मेरे विचार में, क्षेत्रीय पार्टियां ऐसे कई भारतीयों को मंच प्रदान करती हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में दशकों से खुद को वंचित महसूस करते हैं। इससे ऐसे लोगों को राजनीति में भूमिका निभाने का अवसर मिलता है, फिर भले ही ये छोटी क्षेत्रीय पार्टियां सफल हो या न हों। एकसाथ चुनावों से छोटी क्षेत्रीय पार्टियां नुकसान की स्थिति में आ जाएंगी और अंतत: उन राजनीतिक दलों का दबदबा और बढ़ेगा, जिनका पहले से ही प्रभुत्व है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
संजय कुमार, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3nQNa74

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Top Ad

Responsive Ads Here